Monday, May 18, 2009

अनोखापन...


जीवन के इस दौर में
कई राह अनोखी है
भीड को चीरती हर एक
तन्हाई अनोखी है
कहीं शोरगुल का समां है
तो वहीं खामोशी की खुमारी अनोखी है
खुशियों के काफिले में
पांव पसारती गम की परछाई अनोखी है
विश्वास की परम्परा में
शकों की गुंजाइश अनोखी है
मधुर शब्दों की फैलती मिठास में
कटु लफ़्जों की चुभन अनोखी है
हर पल से दि्खती उम्मीद की किरण में
नाउम्मीदगी की वो धुंध अनोखी है
हर नये सवेरे की उजली शिखा मे
कुचली शिखा की कालिमा अनोखी है
सफलता की ऊंचाईयों में
विफलता की एक दल-दल भी अनोखी है
मिलन की ठंडी बयार में
वियोग की वो उमस अनोखी है
और जीवन के सलोने रूप में
मौत कि वो कुरूपता भी तो अनोखी है
तभी तो...
जीवन के इस दौर मे दिखती
हर राह अनोखी है.

जिन्दग़ी...


कैसी पहेळी है
जिन्दग़ी...
जाने कितनो क़ी सहेळी है
जिन्दग़ी...
फिर भी हर दौद मे अकेळी है
जिन्दग़ी...
हर सवाल का जवाब है
जिन्दग़ी...
फिर भी सबसे बडा सवाल है
जिन्दग़ी...
हर दौराह से गुजरती है
जिन्दग़ी...
फिर भी बहुत अन्जानी सी है
जिन्दग़ी...
खुशियां आंचल में भरे, गम दामन में छुपाये है
जिन्दग़ी...
फिर भी हर रस से परे है
जिन्दग़ी...
हर सूरत में बसी है
जिन्दग़ी...
पर सब रुपों से ऊपर है
जिन्दग़ी...
दिखती बहुत्त कठिन पहेली है
जिन्दग़ी...
पर नहीं अबूझ पहेली है
जिन्दग़ी...
सो चाहे हों खडे सवाल ... कितने भी
हर सवाल जवाब से दूर है
जिन्दग़ी...