Wednesday, September 23, 2009

बोझ...


कोई खुशियों का
काफिला लेकर चलता है
कोई पूरी जिन्दगी बनकर
खुशियो की बस्ती का बाशिन्दा
गुजार देता है
मै तो बस चली थी
मुटठी भर खुशियां लेकर
एक छोटी सी पोटली मे
जरा सा बोझ खुशियों का लादकर
खुशियों के इस थोडे से
बोझ तले कान्धा झुकाकर
एक अलग सा नज़रिया लेकर
जीवन की दौड मे
मै भी भाग चली थी...
जाने कब कान्धा सीधा हो गया
कशमकश में
अश्को से मेरा आंचल गीला हो गया
वो जरा सा बोझ जाने कँहा मुझसे छूट गया
खुशियों का वो साया जाने कब
मेरे साये से रुठ गया
वो अलग सा नज़रिया
मेरी आँखों के समन्दर में
मेरे ही अश्कों से डूब गया
उस बोझ की जुदाई में
जीवन ही बोझ बन गया...